Thursday, October 24, 2013

अंतर्विराम


ये विषादग्रस्त जीवन!
फिर भी आशा को संजोकर मैंने
अपने विचारों पर प्रतिकूल प्रभाव
नहीं पड़ने दिया, बस खोज में था एक अलग
व्यक्तित्व की जिसके संभावित अनुभव
मुझे कचोटते हैं कि किस तरह मैं
दुखों से विमुख होकर विवशता से
अपनी पराजय को विजयश्री दे रहा हूँ ,
मैं कुत्सित विपदाओं को कोस रहा हूँ ,
उनको  ढाढस बंधाने के बजाय!
बल्कि इतना स्वार्थी कि मेरी अपनी क्षतिग्रस्त
भावनाएं एकत्व में जी रही हैं ,
कम से कम वो तो मेरे चिरकाल तक की सथिनी थी,
करुण स्वरों से स्पर्श करने पर भी उस कठोर
ह्रदय का किवाड़ खुलने के लिए अभी तत्पर नहीं है
क्योंकि उसके बाहरी आवरण तथा आंतरिक जीवन
में अधीनता का वास हो चुका है,जिन्हें स्वछन्द पवन से
कोई सरोकार नहीं , मगर कब तक वह उन्ही घृणित दीवारों
से सर पटक पटक अपने प्राणों की अनंत व असीम
पीड़ा को चुनौती देगा, क्या उसकी सारी मर्यादाएं
एक मृत मृदा में धंसकर दफ़न हो चुकी हैं?
उसने अपने स्वाभाव में धरती की सहिष्णुता का
पाठ क्यों नहीं सम्मिलित किया?
क्या उसके भाव इतने निर्बल थे कि वो किसी
भी बात का शशक्त उत्तर न दे सके?
समस्त चर्चा से इस तरह कुछ आभास हुआ की अब शायद
मन की शिलाओं से कुछ बूँदें इस दिव्य शरीर को
भिगो देंगी ; मगर ये क्या? शुष्क पवनों का बहाव मेरे
विलाप को और गति दे गया और मैं यहाँ सूखे
चीड के वृक्ष की भांति निढाल पड़ा हूँ, मित्रता की स्वाति
मेरी मरुभूमि में कई बार पड़ी मगर उसने किसी भी खुशहाली
व हरियाली का संकेत नहीं दिया, अपितु वे मेरे भवन को बहाकर
मुझे मेरे मार्ग में अचेत सा, पतझर के जीर्ण पत्तों की तरह
बिखरा हुआ छोड़ गए, मुझे उस प्रज्ज्वलित ज्योति
की आवश्यकता थी जो मेरे दुखों को आत्मसात करे न
कि वो जो मेरे अंतिम संस्कार से पूर्व ही
मुझे जलाकर समूल नष्ट कर दे, मैं भी क्षुब्ध हूँ
कब मुझे उस अनुकूल समय का दर्शन होगा जब
मेरे प्रश्नों की शब्दावली मेरे वाक्यों के अर्थ को सिद्ध
करेगी व मुझे अत्यंत संतुष्टि देगी, तब तक के लिए मैं अंतर्विराम चाहता हूँ


राजेश  बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
  

आत्मा का मरण

  स्वप्न सम्भवतः सबसे पीड़ादायक है वो आपके अंतरमन को छलनी कर देता है मैं प्रेम पाश की मृग तृष्णा में अपने अस्तित्व का विनाश कर रहा हूँ कब तक ...