स्वप्न सम्भवतः सबसे पीड़ादायक है
वो आपके अंतरमन को छलनी कर देता है
मैं प्रेम पाश की मृग तृष्णा में अपने अस्तित्व का
विनाश कर रहा हूँ
कब तक यूँ ही संधि करूंगा
क्या मेरा आत्मसम्मान विकृत हो चुका है , निर्लज्ज हो चुका है
ये जीवित है भी कि नहीं!
कब तक अपने स्वप्न की तिलांजलि दूँ
कब तक अपने विचारों को मारूं
मैं अपनी प्रवृति को तुम्हारे साथ नहीं मिला सकता
मैंने बहुत विचार किया ,
लेकिन अब समायोजन करने की पराकाष्ठा हो चुकी है
अब और नहीं , कदापि नहीं
अब या तो विचारों का छरण होगा या फिर आत्मा का मरण होगा
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '
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