पंक्तियाँ टूट रही है , क्यों टूट रही है ये हमें पता नहीं , मगर टूट रही हैं
संभवतः निद्रा के भवन में स्वप्न अब बोझिल हो चुके हैं ,
कर्मशील न होना एक समस्या है
परन्तु जानते हुए भी सुप्त होना उस से बड़ी विडंबना है ,
मानव ही मानवीय मूल्यों का हनन करता है|
विद्यालय अब विद्या का मंदिर नहीं ,
एक व्यापर मंडल है
जहाँ नुदान के नाम पर मनमाना शुल्क वसूला जाता है ,
अस्पतालों में सेवा भाव नहीं
बल्कि एक बड़ा बाजार लगाया जाता है
जहाँ लाश भी ऊंचे दामों पर मिलती हैं ,
एक लीक पर ही सारी व्यवस्था का ढांचा चल रहा है,
स्वहित की लीक ,
महत्वाकांक्षा की लीक,
भ्रष्टतम व्यवस्था की लीक ,
नवीनता और विकास की परिपाटी सिर्फ कागज़ों में सिमटी हुई है
हे असत्य ! अंततः तू विजयी हो ही गया ,
बहुत प्रयत्न किया कि तुझे व्यक्तित्व में सम्माहित न होने दूँ ,
पर तू हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है ,
क्यों आसपास प्रपंच है , असामाजिकता है , निम्न मानसिकता है ,
कहाँ है वो सत्य का प्रकाश
अरे सत्य का मूल्य कायर नहीं जान सकते ,
हाँ मेरे जैसे कायर , सत्य स्वीकारने
और सत्य बोलने के लिए वीरों सा धैर्य चाहिए ,
सत्य तो वीरों की पूँजी है
मंदिर में शिवजी का पूजन कर रहे हो ये अच्छा है ,
परन्तु शिवजी की महिमा तभी प्रफुल्लित होगी जब सत्य का पूजन होगा !
परन्तु ऐसा लगता है जैसे ये संसार पाखंड की प्रयोगशाला बन चुका है ,
और इस मशीनी युग में मानवता का मूल्य धीरे धीरे शून्य हो रहा है ,
क्योंकि हमें सिर्फ अर्थशास्त्र की भाषा पसंद है ,
राजनितिक किर्याकलापों में हमारी अत्यंत आस्था है ,
मगर सामाजिक सरोकार अब सिर्फ घोषणाओं
और क्षद्म धर्मार्थ करने का साधन मात्र है ,
यहाँ कोई भी कार्यालय सिर्फ लाभ देखना चाहता है ,
उनका उद्देश्य सिर्फ बाज़ारवाद
और भौतिकवादी सोच को विकसित करना है !
ममत्व और सहानुभूति की आशा रखना उनसे बेमानी है
आशाएं बुझ रही है क्यों बुझ रही है पता नहीं , मगर बुझ रही हैं
समस्याओं पर वाद विवाद होता है ,
मगर समस्याओं का समाधान नहीं होता ,
विकास का एक पक्ष आकाश के मुहाने पर पहुंच चुका है
और एक हिस्सा अभी भी कूड़े के ढेर में अपना
बचपन और दो बासी रोटियां ढूंढ रहा है
ये असमान अंतर कब भरेगा , कभी भरेगा भी ,
क्या ये सिर्फ मेरी कविता तक ही सिमटा रहेगा ,
या कभी धरातल पर भी आएगा , मुझे ताली नहीं चाहिए ,
और न ही उनके लिए सहानुभूति चाहिए ,
क्योंकि वो गरीब तुम्हारी सहानुभूति नहीं बल्कि
अपने संघर्ष पर और अपने बाहुबल पर विश्वास रखता है ,
बस उसे उसका अधिकार चाहिए ,
वो रो रहा है , और हम हंस रहे है ,
टीवी पर चुटकुले सुनकर , हाँ चुटकुला ,
अरे हम सबसे बड़े चुटकुले हैं ,
जो उसकी ज़िन्दगी को मज़ाक बना दिया ,
ये मध्यम वर्ग , और निम्न वर्ग सिर्फ विकास के अवसर चाहता है ,
जो उसे नहीं मिलता , मिलता भी है तो छीन लिया जाता है,
दलित शब्द को जाती का प्रमाण पत्र दे दिया ,
उसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझे ,
दलित दबा कुचला है सिर्फ हमारी वजह से ,
लेकिन दलित सिर्फ वो नहीं जो सिर्फ जाति से दलित है ,
दलित वो भी है जो निर्धन है ,
और उसके सारे विकास के अवसरों की तिलाँजलि दी जाती है ,
अपनी ये जातिवादी मानसिकता को त्याग दो
हाँ मैं निराशा की बात कर रहा हैं ,
कोसो मुझे , जितना कोस सकते हो,
पर यदि ज़मीन पर ये सच नहीं है , सच क्या है,
मैं कहता था न की आखिर असत्य जीत गया!
सामान्य वर्ग जब योग्यता होते हुए भी
विकास के अवसर से वंचित रहता है
तो वो भी एक अत्याचार से कम नहीं है ,
वो उस जाति के दलित से भी ज़्यादा हताश हो चुका
जब उसे आरक्षण का सर्पदंश लगता है ,
नहीं नहीं मैं आरक्षण विरोधी नहीं हूँ ,
परन्तु मैं समान अवसर का पक्षधर हूँ ,
मैं सत्य कह रहा हूँ , एक कटु सत्य ,
सम्भवतः इसके बाद मेरा तीव्र विरोध होगा ,
परन्तु मैं सत्य से नहीं डिग सकता ,
मैं कोई महात्मा भी नहीं हूँ ,
परन्तु एक सामान्य नागरिक की भांति विचार रख रहा हूँ
बोलियां चुभ रही है , असत्य वाली बोलियां , चुभेंगी ज़रूर और चुभ रही हैं
पंक्तियाँ टूट रही है , क्यों टूट रही है ये हमें पता नहीं , मगर टूट रही हैं
इच्छाएं फुक रही हैं , क्यों फुक रही या हमें पता नहीं , मगर फुक रही हैं
चिंताएं बढ़ रही हैं , क्यों बढ़ रही है , सभी को पता है , इसलिए बढ़ रही हैं