Monday, May 8, 2017

कृषक-व्यथा...


ठंडी आँच का समंदर क्यों पिछड़  रहा है
क्या दूर से आनेवाली नदी ने अपना रास्ता बदल दिया , बदल ही दिया होगा
क्यों  नहीं बदलेगी वो जब उस पर  बड़ा सा बाँध बना दिया तो क्या किया जा सकता है
कृषक तो  वैसे ही रो रहा है और पराली जलाता  है तो पूरा प्रदेश रोता ,
 अरे वो भी क्या करे क्योंकि  जो क़र्ज़ वो ले रहा है उसको चुकाने के चक्कर मे वो खुद सिधार  जाता है , और छोड़ जाता अपने  बच्चों को  मुआवजा  लेने सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटने के लिए
, बड़े बाबू कहते हैं , कल आना , आज  मंत्री जी अयांगे तो तुम्हारी अर्ज़ी उनके पास रख देंगे ,
 उसे क्या पता था की बड़े बाबू का कल  5 साल मे आएगा ,
शायद 10 साल भी हो सकते हैं , हो सकता  है कृषक का बेटा खुद
अब अपने अर्थी  की तैयारी कर रहा हो , अरे हो क्या सकता है हो ही रहा है ,
.द्‍यनीय स्थिति हमेशा से ही रही है , उस पर क्यों  भाषण देते हो साहब,
करना है तो कुछ करो , वरना ये आश्वासन के पुलंदे  मत इकठ्ठा  करो ,
हमे जीना होगा तो जी लेंगे , और मरना होगा ,
अरे मरना ही होगा जब कोई विकल्प  ही नहीं छोड़ा आपने ,
लेकिन आप अपनी सियासत को मेरे मौत से उत्पन्न सहानुभूति से चमका देना ,
 अपना तो  स्वाभाव ही है, लोगों  का भला करना ,
 सम्पूर्ण देश को खिलाते हैं  ,
.तो आप भी इसमे से कोई फायदा  ले लो ,
बाकी तो अगर ईश्वर की कृपा होगी तो कहूँगा ,
कि हो सके तो किसान मत बनाना , नेता ही बना देना ,
ना कुछ करना पड़ता है , बस झूठ, मक्कारी और अवसरवादिता  मे डिग्री होनी चाइये
, वरना भ्रष्ट जनता बना देना , जो 500  रूपए और 1
 शराब की बोतल के लिए अपना अस्तित्व और भविष्य दांव पर लगा देती है ,
गरीब जनता की तो मजबूरी है  उन्हें अगर दो रोटी
 का जोई लालच देगा तो वो उसी  प्रतिनिधि को चुनेगा ,
 मगर उन संपन्न और तथाकथित बुद्धिजीवियों के
 मन मस्तिष्क पर के पत्थर पड़े हुए हैं जो इस भ्रष्टतंत्र का हिस्सा बने हुए हैं   ,
रही बात हम किसानो की तो हमारी तो विवशता है साहब
अब विश्वास करना आदत बन चुकी है चाहे बाद में विश्वासघात ही मिले ,
आखिर हमें अपने परिवार को चलाना ,
 शायद आप हम पर अनैतिकता का आरोप लगाएं
लेकिन इसमें हमारा बिलकुल भी वश नहीं है ,
आप सत्ता पर बैठो हो , और ये निश्चित रूप से आपकी ज़िम्मेदारी है ,
मगर आपको हमारे 1000 रुपये  क़्वींटल गेहूं से ज़्यादा अपने 13000 की थाली अच्छी लगती है ,
वो अलग बात है की उस थाली में मेरा भी कुछ तो योगदान होगा ,
खैर , मैं क्यों इतना कह रहा हूँ , चलो मुझे देर हो रही है, जा रहा हूँ बाजार में जेब में कुछ पैसे उधर लिए हैं पडोसी से ताकि ज़हर की एक शीशी खरीद सकूँ ..........................


- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

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