Sunday, November 3, 2013

अंतर्मन


एक व्यक्ति का विचार अन्य से बेमेल है
इसमें कोई आश्चर्य नहीं , मगर जब
इसके फलस्वरूप विवादों की प्रतिस्पर्धा
होती है तो मेरी ह्रदय की वेणियों
के तार झंकृत होने के बजाय बेसुरे राग
से व्याकुल हो उठती हैं ,इसलिए मैं
निर्णय करताहूँ किसी का पक्ष न लेकर बस चुप रहूँ ,
मगर मेरी चुप्पी को कायरता की पदवी देने
वालों को इतना बता दूँ कि मैं मौन हूँ पर
अशांत नहीं , मैं वो बूँद हूँ जो
समय कि धार से
सागर में परिवर्तित हो जाती है ; संस्कृति
से अलगाव की शूलशय्या जब मेरे मस्तिष्क
का छिद्रभेदन कर अपनी ओट में सुलाती
है तो नयनो से नींद के बजाय घोर विलुप्तता
का आभास होता है , मेरा ही नहीं ; मेरे भावों,
विचारों, आचरण और सबसे प्रमुख
 मानवता का ! बस इसी निष्कर्ष पर
पहुंचा हूँ कि जीवन- वृक्ष की शुष्क पत्तियों
पर जल की कुछ बूँदें भी डाली जाएँ
तब भी वह जीर्ण और शिथिल
रहेगा मेरे अंतर्मन की भांति

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

जीवन-स्मृति


एक प्रतिलिपि जीवन की श्वास लेती हुई
त्रिभुजाकार ह्रदय पर निवास करती है ,
श्वेत-श्याम वर्णों से चमक कर रुधिर कणों
में बहती है ; उसमे इतनी गहनता सम्माहित है
कि वह  अधखुले नेत्रों से स्वप्न देखती है
और विचार करती है कि कौन सा
ऐसा विविधता भरा प्रश्न मष्तिष्क में
कोलाहल को जन्म देता है , शायद
उसकी सोच चिरकाल तक यही रहती है कि
जीवनधारा कि अवधि पर विराम लगने से
कैसे बचा जाए, कौन से नवीन व प्रचलित
उपकरणों से आयु का सीमित दायरा
असीम अम्बर के समक्ष प्रतीत हो , मगर
खेद है कि जब इसी जीवन में निराशा के
सर्पदंश लगते हैं तो वह इस से मुक्ति की
कामना करता है और उमंग से भरा होने पर
एक जीवन को अल्पावधि की संज्ञा देता है मगर
म्रत्यु जैसे अटल सत्य को उसकी
महत्वाकांक्षा , महानता, त्याग ,    
बोधशीलता और बहुत सारे सदगुण
रोकने में असमर्थ है किन्तु जीवन से जुडी
उसकी मधुर व कटु स्मृतियाँ जीवित रहेंगी
उसे मृत्यु भी नहीं छीन सकती


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Thursday, October 24, 2013

अंतर्विराम


ये विषादग्रस्त जीवन!
फिर भी आशा को संजोकर मैंने
अपने विचारों पर प्रतिकूल प्रभाव
नहीं पड़ने दिया, बस खोज में था एक अलग
व्यक्तित्व की जिसके संभावित अनुभव
मुझे कचोटते हैं कि किस तरह मैं
दुखों से विमुख होकर विवशता से
अपनी पराजय को विजयश्री दे रहा हूँ ,
मैं कुत्सित विपदाओं को कोस रहा हूँ ,
उनको  ढाढस बंधाने के बजाय!
बल्कि इतना स्वार्थी कि मेरी अपनी क्षतिग्रस्त
भावनाएं एकत्व में जी रही हैं ,
कम से कम वो तो मेरे चिरकाल तक की सथिनी थी,
करुण स्वरों से स्पर्श करने पर भी उस कठोर
ह्रदय का किवाड़ खुलने के लिए अभी तत्पर नहीं है
क्योंकि उसके बाहरी आवरण तथा आंतरिक जीवन
में अधीनता का वास हो चुका है,जिन्हें स्वछन्द पवन से
कोई सरोकार नहीं , मगर कब तक वह उन्ही घृणित दीवारों
से सर पटक पटक अपने प्राणों की अनंत व असीम
पीड़ा को चुनौती देगा, क्या उसकी सारी मर्यादाएं
एक मृत मृदा में धंसकर दफ़न हो चुकी हैं?
उसने अपने स्वाभाव में धरती की सहिष्णुता का
पाठ क्यों नहीं सम्मिलित किया?
क्या उसके भाव इतने निर्बल थे कि वो किसी
भी बात का शशक्त उत्तर न दे सके?
समस्त चर्चा से इस तरह कुछ आभास हुआ की अब शायद
मन की शिलाओं से कुछ बूँदें इस दिव्य शरीर को
भिगो देंगी ; मगर ये क्या? शुष्क पवनों का बहाव मेरे
विलाप को और गति दे गया और मैं यहाँ सूखे
चीड के वृक्ष की भांति निढाल पड़ा हूँ, मित्रता की स्वाति
मेरी मरुभूमि में कई बार पड़ी मगर उसने किसी भी खुशहाली
व हरियाली का संकेत नहीं दिया, अपितु वे मेरे भवन को बहाकर
मुझे मेरे मार्ग में अचेत सा, पतझर के जीर्ण पत्तों की तरह
बिखरा हुआ छोड़ गए, मुझे उस प्रज्ज्वलित ज्योति
की आवश्यकता थी जो मेरे दुखों को आत्मसात करे न
कि वो जो मेरे अंतिम संस्कार से पूर्व ही
मुझे जलाकर समूल नष्ट कर दे, मैं भी क्षुब्ध हूँ
कब मुझे उस अनुकूल समय का दर्शन होगा जब
मेरे प्रश्नों की शब्दावली मेरे वाक्यों के अर्थ को सिद्ध
करेगी व मुझे अत्यंत संतुष्टि देगी, तब तक के लिए मैं अंतर्विराम चाहता हूँ


राजेश  बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
  

आत्मा का मरण

  स्वप्न सम्भवतः सबसे पीड़ादायक है वो आपके अंतरमन को छलनी कर देता है मैं प्रेम पाश की मृग तृष्णा में अपने अस्तित्व का विनाश कर रहा हूँ कब तक ...