हे युग मरीचिका तुम कहाँ हो,संभवतःयहीं हो
जीवन के जिस कालखंड से स्वयं को देखा है तब से एक दौड़ लगी हुई है
अनवरत,कुछ प्राप्त करने या सब कुछ त्यागने को, ज्ञात नहीं है ,
परिस्थिति बड़ी असमंजस की है,
आख़िर क्या चाहिए मुझे ये प्रश्न अभी तक अनुतरित है,
आदर्श समाज कहता है कि धैर्य रखो,धैर्य एक सागर है,
मगर लगता धैर्य सागर नहीं एक बाँध है,
जो पता नहीं किस पल एक छोटी सी लहर से लड़खड़ा जाएगा,
निस्तेज है वातावरण,
सभी ध्रुवों से विरोध की ध्वनि मुखर है,
क्या करूँ,सुनता हूँ तो समय व्यर्थ होता है,और
ना सुनू तो व्यक्तित्व के दोष में यथास्थिति बनी रहती है ,
ऐसे लगता है सारे बाण सूक्ष्म होकर सुईं के रूप मे मुझे छेद रहे हैं,
और पीड़ा दिखाने का किंचित भी समय नहीं है मेरे पास,
इसलिए नहीं कि मैं व्यस्त हूँ बल्कि इसलिए कि मेरे पास समय का अभाव है,
जो उस समय नहीं था जब मैने इसे व्यर्थ किया,
धन वैभव के लिए भागता हूँ ,
प्रतिष्ठा के लिए दौड़ा,चापलूसी करने का भी मन किया मगर कर नहीं पाया ,
शायद दंभ की मात्रा बहुत थी,या फिर स्वाभिमान था,
मगर अब मेरा आदर्शवाद किसी गली के खंडहर् मे सो रहा है,
कोई नहीं सुनना चाहता भाई यहाँ पर!
यहाँ एक विचित्र सी गति की प्रतिस्पर्धा है ,और वो गति किसी नैतिकता को नहीं मानती,
किसी चरित्र को नहीं मानती बस इसे कुछ सिक्को की झंकार
और मुद्राओं का भंडार चाहिए इसके अतिरिक्त मानवता का कोई परिदृश्य यहाँ नहीं दिखता,
और मैं भी इस क्रूर मायाजाल के अधीन हो गया हूँ,
इतना विकृत कि दर्पण मे अपने मुखमंडल को देखने पर भी घृणा होती है,
समाप्ति की ओर है ये यात्रा,
और एक अनायास निरंतर गति से चलता है जीवन-रथ,
जीवन के पहियों पर भौतिकवादी मानसिकता का आवरण है,
ताकि ये सुख समृद्धि वाला छदम जीवन अमृत समान हो,
हां वहीं अमृत जिसे सोमरस कहते हैं,
जिस के सेवन करने पर मैं एक सम्राट की भाँति आचरण करता हूँ,
सम्राट!!!! हा हा हा ,एक निरंकुश,दुर्बल,और कुंठाग्रस्त सम्राट,
यही लड़खड़ाती व्यवस्था है अब इसी पर चलना,
वैसे तुम्हे चलना होगा तो बता देना ,
मैं हमेशा से तत्पर हूँ , यहाँ तुम्हे निर्देश देने को और प्रशिक्षित करने को !
--राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
No comments:
Post a Comment