कितने वर्षों से खोज रहा हूँ मन के अँधेरे को |
कभी दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या में , कभी प्रेम को निरर्थक प्रमाणित करने में ,
कदाचित ये न्यायोचित है मेरे अहम् के लिए परन्तु मेरे व्यक्तित्व के लिए कभी नहीं हो सकता ,
एक गतिरोध उत्पन्न होता है ; कर्मनिष्ठा और छल-कपट के मध्य ,
और इस प्रतिस्पर्धा में किस और मेरा दृष्टिकोण होगा मुझे ज्ञात नहीं है ,
संभवतः मैं विवेकहीन हो गया हूँ , क्योंकि मेरा स्वाभिमान दो खण्डों में विभाजित हो चुका है ,
स्व और अभिमान में | दोनों ने लिए एक विशेष स्थान बना लिया है ,
मेरा स्व अपने समक्ष किसी की नहीं सुनता और अभिमान दूसरों को निकृष्ट सिद्ध करने में प्रयासरत है |
परन्तु हाँ ! इस सबसे एक बात स्पष्ट है की मेरा अंतकाल आने में अब अधिक समय नहीं बचा ,
ये संताप क्यों अधिकृत है प्राणो में !
अरे होगा ही , जब स्वयं मैंने विचारों की शून्यता को अनुभव किया है !
मगर अब नहीं ! कदापि नहीं !
अब नवचेतना आएगी और द्वेष और क्लेश का प्रतिकार करेगी
क्योंकि मैं अब ये समझ चुका हूँ की संगठन की व्यवस्था ही एकमेव मार्ग है एकांत का परिहास करने को |
सत्य और सद्भाव है तभी जीवन की हर गणित सरल है ,
सामानांतर रेखाएं चाहे कभी आपसे में नहीं मिल सकें पर साथ तो चल रही हैं ,
असंख्य कोण , विचित्र परिमेय , नया आधार , कितने ही आकार हैं जीवन में ,
मगर अंत में सब एक गोलाकार वृत्त में सम्माहित हो जायेगा, जैसे कि मेरा ये शब्दवृत्त......................................
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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