Tuesday, December 19, 2017

परिचय



समय तुम बहुत तीक्ष्ण और निर्मम हो ,
संभवतः तुमने मेरी दिनचर्या और जीवन में असंख्य दंश दिए हैं,
 और इसका उत्तरदायी मैं स्वयं हूँ ,
अनंतकाल से अज्ञानता की काल कोठरी में मस्तिष्क परतंत्र हो चुका,
स्वतंत्रता क्या होती है इसका तनिक भी भान नहीं था ,
बस  अभिमान की एक  मोटी परत थी जो मानसिकता को भ्रष्ट कर रही थी|
विद्वेष और दम्भ ने चेहरे की त्योरियों को बढ़ा रखा था|
 ज्ञात नहीं कि कौन से गंतव्य की ओर मुड़ना है,  बस अनवरत किसी दिशाहीन यात्रा पर जा रहे हैं ,
संशय का सम्बल लेकर,
मेरा अर्ध ज्ञान तब मेरे व्यक्तित्व की तिलांजलि देता है  जब मैं मौन होकर भी विचलित रहता हूँ ,
ईर्ष्या का आविर्भाव ऐसे हुआ जैसे कोई गर्म चाय के केतली  मेरे केशरहित मुंड पर उड़ेल रहा हो!
कुविचार आया कि कैसे प्रतिक्षण प्रयास किया जाये जीवन की विलासिता को बढ़ाने वाले साधन यंत्रो से लैस होते रहें |
समय व्यतीत अपने समय में होता गया और मैं चिंता की कोठरी में कठोर शीत लहर का प्रहार झेल रहा हूँ ,
ये बयार हवाओं की नहीं अँधेरे की है ,
जीवन के अँधेरे की, निराशा के अँधेरे की!  कैसे पार पाउँगा ,
नैया तो पहले ही खर पतवार के खेतों में उलझ चुकी थी, वहां मरुभूमि ही थी,
कोई हरियाली नहीं थी|  क्यों! परिस्थितियों  तुम क्यों  नीरव अश्रुकण को बहाती हो ,
 आओ तुम भी आओ रणभूमि में बाण चलाने के लिए,   मुझे कोसने के लिए  ,
संभवतः मेरी पीड़ा के मधुर सोपान, कंटकों की क्यारियों में आश्रित है जिन्हे स्वयं मैंने बोया था कभी लालसा,
मद और अति महत्वाकांक्षा का उपधान लेकर!!!!!
विचारों का समागम अब तब होगा जब इस निर्दय शरीर का एक एक टुकड़ा अग्निकुंड में सम्माहित होगा ,
फिर किसी की सहानुभूति की दो बूँद भी मेरी आत्मा के निर्वाण के लिए पर्याप्त होगा ,
तब तक अनायास ही पश्चाताप की वेणी बजायेंगे, नहीं तो मंथन तो होगा ही!!!!

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

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