मार्ग में चल रहे हैं मगर लक्ष्य क्या है पता नहीं,
मन की आंखें नेत्रहीन हो गई
और जो आंखें बची है वो दिशाहीन हैं,
प्रश्न व्यापक हैं मगर उत्तर लघु हैं,
खोजते हैं जीवन को मगर स्वयं में कुछ देखते नहीं,
सारा दिन आलस्य की तन्द्रा में गुज़ारते हैं!
अब तो कीट और पतंगे भी हमारा उपहास करते हैं ,
क्योंकि हमारा जीवन उनसे भी निकृष्ट हो गया है!
उनको मारने वाले कीटनाशक हमारी नसों में घुल चुके हैं ,
भावनाएं तो मानव की वैसे भी विषधर थी
मगर अब उसमे एक नवरंग चढ़ गया!
साथ के सहपाठी और सहकर्मी नए-नए आयामों को छू कर आ गए
और हम वहीँ कूपमंडूक से बैठें हैं ,
बस कोसना , उलाहना और आलोचना करना आता है!
परिश्रम करना नहीं आता ,
अपनी परिस्थितियों और असफलताओं
केवल परिवेदना करना आता हैं ,
स्वयं के हृदय में झांकते भी नहीं ,
मगर दूसरों व्यक्तियों से ईर्ष्या होती है!
कहाँ है वो प्रकाश पुंज जहाँ मन के अँधेरे को
एक बाती का कण भी प्रज्ज्वलित कर देता है ,
वह कहीं नहीं है मेरे भीतर है ,
बस सोया पड़ा है क्योंकि उसे केवल वाक्पटुता आती है ,
कर्म करना नहीं!
ठीक है बनो अकर्मण्य,
रह जाओगे फिर इसी धूसर में
जिसे सब लोग हेय दृष्टि से देखते हैं,
हाँ अपने लिए एक बड़ा सा गड्ढा ज़रूर खोद देना ,
ताकि लज्जा का अनुभव होने पर
तुम अपना मुँह तो कहीं छुपा सको,
तब तक निसंदेह सबकी गालियों का पात्र बने रहे
क्योंकि तुम्हारी अभद्रता ही तुम्हारे जीवन की पराजय है!
विफलता का कारण स्वयं तुम हो ,
कोई दूसरा या तीसरा नहीं है !
रहो ऐसे ही किंकर्तव्यविमूढ़
क्योंकि जीवन में स्पष्टता को तो
तुमने सम्मिलित होने का अवसर ही नहीं दिया!
रुग्ण तुम्हारा शरीर नहीं तुम्हारी मानसिकता है ,
इसको परिवर्तित करो ,
अन्यथा जैसे इतिहास ने कायरों का मान मर्दन किया
वैसे ही तुम्हारा भी किया जाएगा !
हालाँकि इसकी सम्भावना ना के सामान है!
क्योंकि सामर्थ्य कुछ नहीं है तुम में
और तुम अनदेखा और तिरस्कृत करने के ही योग्य हो
-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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