Sunday, February 22, 2015

कितने दंश??????

प्रातः काल मे आलस्य का आवरण लिये तनिक उठा शरीर
घोर निंद्रा और अपरिष्कृत विश्राम शय्या
उस पर घर मे तत्काल ही उलाहना भरे शब्द, दोषारोपण
जीवन की ये दिनचर्या जैसे  मुझमे प्रगाढ़  हो चुकी है 

संभवतः मैने भूतकाल मे ऐसे निर्णय लिये हों जिस से
कि मेरे कारण मेरे परिवार को क्षति और दुख पहुंचा हो
इसलिये मुझे इस प्रकार के विषबाण लगते हैं

मुखाकृति जब भी प्रसन्नता  को धारण करना चाहती   है
तब ही ना जानने कितने सारे विरोध, द्वेषपूर्ण संवाद,
प्रवंचना, मिथ्या उपदेश, क्रोधित विचार, असंयम वाणी,
अपशब्दों का अंबार  मुझ पर बरसते हैं
और मेरा व्यक्तित्व-हनन होता रहता है

आखिर कब तक मैं इतने सारे  दंश को संमाहित करने की सहिष्णुता लाऊँ? 
क्या मेरा व्यक्तित्व केवल एक ही स्थान पर सिमट गया है? , क्या मुझे अधिकार नहीं
कि मैं अपना  जीवन स्वच्छन्द विचारधारा के साथ व्यतीत करूं?,
संभवतः नहीं , क्योंकि मैं भी जानता हूँ कि मुझसे संबद्ध कई व्यक्ति और मत हैं
और मैं उनका अनादर नहीं कर सकता, अरे नहीं ! मैं व्यक्तिवाद मे तनिक भी
सम्मिलित नहीं हूँ, परंतु यदि मैं अपने अंतर्मन को इसी तरह सिकुड़ता रखूंगा
तो संशयपूर्ण, विकल्प-हीन और कुंठाग्रस्त अवश्य हो जाउंगा 

मुझे ज्ञात  है कि यह निश्चित ही एक विचित्र संवाद है दूसरों के लिये , पर मुझे
अपने स्पष्ट स्वरूप की अभी तक आवश्यकता है , जो संभवतः इस संसार के किसी  भी कोने मे विद्यमान नहीं है         


 राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब

  


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