Wednesday, February 18, 2015

निवर्तमान स्मृति वृत

समय का बिसरा एक छंद पड़ा है एक कोने मे,
पता नहीं किस सिरे से मिल रहा है 
भीषण  ध्वनि  कातर है अपनी मुक्त छवि पाने को
ये जय है , विजय है , क्या है !!

समानान्तर पथसाथी ओझल 
जीवन विकटमृत्यु निकट
एक झीनी मखमली तरंग 
पुराने टेप रेकॉर्ड से छ्नकती है 
उसका मर्म या तो मुझे पता है 
या उसकी विलुप्त आत्मा को 
पर अब !! ये क्या है बड़ा सा सन्नाटा
या शोरगुल का बाज़ार

पिछलग्गू समाज बड़ी निर्ममता से अपने निर्णय
सुनाता हैमन के एक द्वार मे स्वीकृति है
दूसरे मे दंभ
,ये दंभ स्वाभिमान है या पराजय की शृंखला
ज्ञात तो नहीं 
परंतु जो भी है ,
मुझमे अब प्रतिकार करने की तनिक भी 
शक्ति नहीं
संसृति तुम सच मे मायाजाल हो !!!!!

व्यापक दृष्टि या अंधभक्ति का आवरण
व्यक्तिवादी मानसिकता का घेराव
यहाँ वर्तमान
मे स्वार्थ सिद्धि ही प्रभु साधक का नया शस्त्र है 
क्या यही सत्य का प्रकाश है कि ईश्वर मन मे नहीं 
प्रभु-साधक के भौतिक स्वरूप मे है
जहां असंख्य अशांत भक्त 
उसके चरण स्पर्श करते हैं , 
जिसे साधना का वास्तविक बोध नहीं 
,जहां एक कढाई की हुई चादर किसी बेजान मृत शरीर पर डाली जाती है 
छी , क्या पाखंडअसम्मान........
..मोहभंग हुआ तुमसे भी ईश्वर , किन्तु 
इसका कारण तुम नहीं , मैं स्वयं हूँ 

प्रयासरत हूँ एक नयी व्यवस्था का अनुसरण करने को 
मगर कब तक बहुप्रतीक्षित रहेगा वो क्षण ,
 धैर्य सिकुड़ रहा है 
,स्वाभिमान डिग रहा है
मैं त्रस्त हूँ , क्योंकि मैं भ्रष्ट हूँ 
अबोध ही सही था , बुद्धिजीवी बना तो विचार बांटने के लिये भी 
बाज़ार मूल्य तय कर रखा है
क्या है ये !!!! आखिर है क्या ये 
एक निरकुश् अवधारणा
कब समाप्त होगी ,तू जानता है मन या नहीं ;
 नहीं तू कैसे जानेगा तुझे तो मैने बाँध रखा है 

अब संशय पर विलाप मत करो , प्रसन्न रहो 
नियती यही चाहती है
आकाश की गहराई से बड़ी जीवन 
मे कंटकों की भरमार है
असंभव कुछ होता नहीं है , बस प्रतीत होता है 
मगर ये है क्या , क्या है ये!

आचरण की बर्बरता है
प्रकाश कहीं नहीं हैनहीं हैनहीं हैनहीं है 

अक्षम्य आचरण
असभ्य जीवन
विकृत मानसिकता
मानवीय रिक्तता
नैतिक पतन
धूमिल लोचन
बाज़ारू संस्कृति
अपयश,अपकीर्ति  , 
यही है , यही है , यही है ,,यही है   
केवल असहनीय ही नहीं,  अशालीन भी         

ये परिस्तिथियाँ अभी से नहीं , 
ये तो शताब्दियों से अपने लिये
नई नयी संभावनाओं का सृजन करती है
क्योंकि सहृदयता अब एक विस्मृत विषय है ,
और ये तो निवर्तमान स्मृति वृत है 
जहां से कोई भी सिरा 
मानवता की ओर कम ही जाता है 

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   


  


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