Saturday, November 14, 2015

समाप्ति की ओर




हे युग मरीचिका तुम कहाँ हो,संभवतःयहीं हो
जीवन के जिस कालखंड से स्वयं को देखा है तब से एक दौड़ लगी हुई है
अनवरत,कुछ प्राप्त करने  या सब कुछ त्यागने को, ज्ञात नहीं है ,
परिस्थिति बड़ी असमंजस की है,
आख़िर क्या चाहिए मुझे ये प्रश्न अभी तक अनुतरित है,
आदर्श समाज कहता है कि धैर्य रखो,धैर्य एक सागर है,
मगर लगता धैर्य सागर नहीं एक बाँध है,
जो पता नहीं किस पल एक छोटी सी लहर से लड़खड़ा जाएगा,
निस्तेज है वातावरण,
सभी ध्रुवों  से विरोध की ध्वनि मुखर है,
क्या करूँ,सुनता हूँ तो समय व्यर्थ होता है,और
ना सुनू तो व्यक्तित्व के दोष में यथास्थिति बनी रहती है  ,
ऐसे लगता है सारे बाण सूक्ष्म होकर सुईं के रूप मे मुझे छेद रहे हैं,
और पीड़ा  दिखाने का किंचित भी समय नहीं है मेरे पास,
इसलिए नहीं कि मैं व्यस्त हूँ बल्कि इसलिए कि मेरे पास समय का अभाव है,
जो उस समय नहीं था जब मैने इसे व्यर्थ किया,
धन वैभव के लिए भागता हूँ ,
प्रतिष्ठा के लिए दौड़ा,चापलूसी करने का भी मन किया मगर कर नहीं पाया ,
शायद दंभ की मात्रा बहुत थी,या फिर स्वाभिमान था,
मगर अब मेरा आदर्शवाद किसी  गली के  खंडहर् मे सो रहा है,
कोई नहीं सुनना चाहता भाई यहाँ पर!
यहाँ एक विचित्र सी गति की प्रतिस्पर्धा है ,और वो गति किसी नैतिकता को नहीं मानती,
किसी चरित्र को नहीं मानती बस इसे कुछ सिक्को की झंकार
और मुद्राओं का भंडार चाहिए इसके अतिरिक्त मानवता का कोई परिदृश्य यहाँ नहीं दिखता,
और मैं भी इस क्रूर मायाजाल के अधीन हो गया हूँ,
इतना विकृत कि दर्पण मे अपने मुखमंडल को देखने पर भी घृणा होती है,
समाप्ति की ओर है ये यात्रा,
और एक अनायास निरंतर गति से चलता है जीवन-रथ,
जीवन के पहियों पर भौतिकवादी मानसिकता का आवरण है,
ताकि ये सुख समृद्धि वाला छदम जीवन अमृत समान हो,
हां वहीं अमृत जिसे सोमरस कहते हैं,
जिस के सेवन करने पर मैं एक सम्राट की भाँति आचरण करता हूँ,
सम्राट!!!! हा हा हा ,एक निरंकुश,दुर्बल,और कुंठाग्रस्त सम्राट,
यही लड़खड़ाती व्यवस्था है अब इसी पर चलना,
वैसे तुम्हे चलना होगा तो बता देना ,
मैं हमेशा से तत्पर हूँ , यहाँ तुम्हे निर्देश देने को और प्रशिक्षित करने को !  

--राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'      


Tuesday, March 3, 2015

चक्रव्यूह नव-अभिमन्यु का


सोच के उस दायरे मे सारे प्रयत्न विफल हैं शांति के जब कोई विभीषण अपने ही घर का भेद खोलता है,ये घातक आस्था उस(विभीषण) पर इस तरह हावी है कि उसे अपना अपमान स्वीकार  है मगर तुम्हारा सम्मान कतई स्वीकार नहीं,  इस ओछी विघटन करने की राजनीति का शीघ्र ही उन्मूलन होगा और ऐसा होगा कि सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थान भी पर्याप्त नहीं होगा तुम्हे अपनी 
कुटिल मुखाकृति छुपाने को !! 


षडयंत्र रचते हैं और पकड़े जाने पर निर्लज़्ज़ता से अपनी बात का औचित्य सिद्ध करते हैं, 
वीभत्सता तथा निम्नता की सारी सीमाएं लाँघ देते है, 
मगर उनके मस्तिष्क मे फिर भी पश्चाताप की एक भी रेखा नहीं होती 

खेद है कि ऐसे तथाकथित मित्रों और सम्बंधियों से अच्छे तो हमारे शत्रु हैं , 
कम से कम हमे उनके वार का तो पता रहता है,
आँखों मे झूठी संवेदना,असत्य सांत्वना,हित करने का मिथ्या मण्डन तो कोई इनसे सीखे, 
क्षुब्ध हूँ,और अशांत भी मगर,अब सत्य का उद्घोष होकर रहेगा, अगर तुम कपट,छल के ज्ञाता हो
तो मैं तुम्हारे लिये विध्वंसक हूँ ,एक ऐसा विध्वंसक जो तुम्हे मूल से उखाड़ फेंकेगा ,
और उसके बाद तुम्हे अपनी धारणा पर बहुत पश्चाताप होगा, 

ये तुम्हारे भीतराघात और आघात पर मेरा विस्फोटक प्रतिघात होगा! 
तुम्हारे इस कुचक्र ,स्वार्थ पोषित चक्रव्यूह को मैं तोड़ कर रहूँगा ! हाँ मैं अर्जुन नहीं हूँ 
लेकिन मैं नव-अभिमन्यु हूँ जिसे तुम अबोध समझकर बड़ी तन्मयता और सरलता से ले रहे हो ये नव अभिमन्यु अब तुम्हारे चक्रव्यूह को तोड़कर भस्म करके ,फिर उस से पार पाने मे भी समर्थ है !  और मैं विनाशक भी हूँ जो तुम्हारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समूल नष्ट करने का शौर्य और योग्यता अपने पास रखता हूँ !!! 

-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 




     


Sunday, February 22, 2015

कितने दंश??????

प्रातः काल मे आलस्य का आवरण लिये तनिक उठा शरीर
घोर निंद्रा और अपरिष्कृत विश्राम शय्या
उस पर घर मे तत्काल ही उलाहना भरे शब्द, दोषारोपण
जीवन की ये दिनचर्या जैसे  मुझमे प्रगाढ़  हो चुकी है 

संभवतः मैने भूतकाल मे ऐसे निर्णय लिये हों जिस से
कि मेरे कारण मेरे परिवार को क्षति और दुख पहुंचा हो
इसलिये मुझे इस प्रकार के विषबाण लगते हैं

मुखाकृति जब भी प्रसन्नता  को धारण करना चाहती   है
तब ही ना जानने कितने सारे विरोध, द्वेषपूर्ण संवाद,
प्रवंचना, मिथ्या उपदेश, क्रोधित विचार, असंयम वाणी,
अपशब्दों का अंबार  मुझ पर बरसते हैं
और मेरा व्यक्तित्व-हनन होता रहता है

आखिर कब तक मैं इतने सारे  दंश को संमाहित करने की सहिष्णुता लाऊँ? 
क्या मेरा व्यक्तित्व केवल एक ही स्थान पर सिमट गया है? , क्या मुझे अधिकार नहीं
कि मैं अपना  जीवन स्वच्छन्द विचारधारा के साथ व्यतीत करूं?,
संभवतः नहीं , क्योंकि मैं भी जानता हूँ कि मुझसे संबद्ध कई व्यक्ति और मत हैं
और मैं उनका अनादर नहीं कर सकता, अरे नहीं ! मैं व्यक्तिवाद मे तनिक भी
सम्मिलित नहीं हूँ, परंतु यदि मैं अपने अंतर्मन को इसी तरह सिकुड़ता रखूंगा
तो संशयपूर्ण, विकल्प-हीन और कुंठाग्रस्त अवश्य हो जाउंगा 

मुझे ज्ञात  है कि यह निश्चित ही एक विचित्र संवाद है दूसरों के लिये , पर मुझे
अपने स्पष्ट स्वरूप की अभी तक आवश्यकता है , जो संभवतः इस संसार के किसी  भी कोने मे विद्यमान नहीं है         


 राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब

  


Wednesday, February 18, 2015

जन्म का ये दिवस भी......

जन्म का ये दिवस भी ,
स्मरण रहेगा मुझे भी 

संवाद स्थापित नहीं हुआ 
जो धन है अर्जित वही हुआ 
ये शृंखला है त्रास की 
बूंदें लगी मधुमास सी 
है सहस्र साथी साथ के
पर कहीं एकांत की छाया मे 

जन्म का ये दिवस भी 
स्मरण रहेगा मुझे भी 

आकांक्षाएं शोषित हुई 
प्रतिकार को प्रेरित हुई 
वनवास फिर श्री राम गये 
रावण सी सृष्टि दिख रही  
भगत जी शिवधाम गये 
बस उसी अर्ध स्वप्न की बेला मे 

जन्म का ये दिवस भी 
स्मरण रहेगा मुझे भी 

ये रश्मियां असंख्य है 
पर सूर्य कब तक दिव्य है 
ये सदियों का संताप है 
ध्वनि तेज़ करना पाप है 
प्रबुद्ध सब चुपचाप हैं 
ये राक्षसी पदचाप है 
मैं स्वयंभू नहीं भिन्‍न इससे 
कर रहा हूँ आत्म मंथन
किसी बीहड़ पथ के तीरे 

जन्म का ये दिवस भी 
स्मरण रहेगा मुझे भी 

नीरस है रहती हर दिशा
मैं स्वप्न दृष्टा कब रहा 
जो स्नेह स्वाति जल रही 
उनका ना मुझमे कुछ रहा 
क्या शेष जीवन रह गया 
अब शीत-श्वासें थक रही 
जब ग्रीष्म क्रोधित मन हुआ   
मन के तिमिर मे खोजकर  
कुछ नव-विधा प्रकाश मैने 
अब जा रहा हूँ रिक्त सा
इस वर्षफल को छोडकर

जन्म का ये दिवस भी 
स्मरण रहेगा मुझे भी 

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   

निवर्तमान स्मृति वृत

समय का बिसरा एक छंद पड़ा है एक कोने मे,
पता नहीं किस सिरे से मिल रहा है 
भीषण  ध्वनि  कातर है अपनी मुक्त छवि पाने को
ये जय है , विजय है , क्या है !!

समानान्तर पथसाथी ओझल 
जीवन विकटमृत्यु निकट
एक झीनी मखमली तरंग 
पुराने टेप रेकॉर्ड से छ्नकती है 
उसका मर्म या तो मुझे पता है 
या उसकी विलुप्त आत्मा को 
पर अब !! ये क्या है बड़ा सा सन्नाटा
या शोरगुल का बाज़ार

पिछलग्गू समाज बड़ी निर्ममता से अपने निर्णय
सुनाता हैमन के एक द्वार मे स्वीकृति है
दूसरे मे दंभ
,ये दंभ स्वाभिमान है या पराजय की शृंखला
ज्ञात तो नहीं 
परंतु जो भी है ,
मुझमे अब प्रतिकार करने की तनिक भी 
शक्ति नहीं
संसृति तुम सच मे मायाजाल हो !!!!!

व्यापक दृष्टि या अंधभक्ति का आवरण
व्यक्तिवादी मानसिकता का घेराव
यहाँ वर्तमान
मे स्वार्थ सिद्धि ही प्रभु साधक का नया शस्त्र है 
क्या यही सत्य का प्रकाश है कि ईश्वर मन मे नहीं 
प्रभु-साधक के भौतिक स्वरूप मे है
जहां असंख्य अशांत भक्त 
उसके चरण स्पर्श करते हैं , 
जिसे साधना का वास्तविक बोध नहीं 
,जहां एक कढाई की हुई चादर किसी बेजान मृत शरीर पर डाली जाती है 
छी , क्या पाखंडअसम्मान........
..मोहभंग हुआ तुमसे भी ईश्वर , किन्तु 
इसका कारण तुम नहीं , मैं स्वयं हूँ 

प्रयासरत हूँ एक नयी व्यवस्था का अनुसरण करने को 
मगर कब तक बहुप्रतीक्षित रहेगा वो क्षण ,
 धैर्य सिकुड़ रहा है 
,स्वाभिमान डिग रहा है
मैं त्रस्त हूँ , क्योंकि मैं भ्रष्ट हूँ 
अबोध ही सही था , बुद्धिजीवी बना तो विचार बांटने के लिये भी 
बाज़ार मूल्य तय कर रखा है
क्या है ये !!!! आखिर है क्या ये 
एक निरकुश् अवधारणा
कब समाप्त होगी ,तू जानता है मन या नहीं ;
 नहीं तू कैसे जानेगा तुझे तो मैने बाँध रखा है 

अब संशय पर विलाप मत करो , प्रसन्न रहो 
नियती यही चाहती है
आकाश की गहराई से बड़ी जीवन 
मे कंटकों की भरमार है
असंभव कुछ होता नहीं है , बस प्रतीत होता है 
मगर ये है क्या , क्या है ये!

आचरण की बर्बरता है
प्रकाश कहीं नहीं हैनहीं हैनहीं हैनहीं है 

अक्षम्य आचरण
असभ्य जीवन
विकृत मानसिकता
मानवीय रिक्तता
नैतिक पतन
धूमिल लोचन
बाज़ारू संस्कृति
अपयश,अपकीर्ति  , 
यही है , यही है , यही है ,,यही है   
केवल असहनीय ही नहीं,  अशालीन भी         

ये परिस्तिथियाँ अभी से नहीं , 
ये तो शताब्दियों से अपने लिये
नई नयी संभावनाओं का सृजन करती है
क्योंकि सहृदयता अब एक विस्मृत विषय है ,
और ये तो निवर्तमान स्मृति वृत है 
जहां से कोई भी सिरा 
मानवता की ओर कम ही जाता है 

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'   


  


आत्मा का मरण

  स्वप्न सम्भवतः सबसे पीड़ादायक है वो आपके अंतरमन को छलनी कर देता है मैं प्रेम पाश की मृग तृष्णा में अपने अस्तित्व का विनाश कर रहा हूँ कब तक ...